सफलता की प्रेरणादायक कहानी — संघर्षों से आत्मनिर्भरता तक: प्रतिमा का सफर

जब जीवन में हर रास्ता बंद नजर आता है, तब कुछ लोग उम्मीद की लौ जलाकर चलना नहीं छोड़ते। ऐसी ही एक साहसी और प्रेरणादायक युवती हैं प्रतिमा, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में हार मानने के बजाय खुद को संवारने और आगे बढ़ने का संकल्प लिया। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के छोटे से गांव रग्घा कला से आने वाली 21 वर्षीय प्रतिमा आज अपने प्रयासों से न सिर्फ शिक्षित हैं, बल्कि अपने समुदाय के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनी हुई हैं।

बचपन से ही शुरू हुआ संघर्ष

प्रतिमा का जन्म वर्ष 1999 में हुआ। उनके जन्म से पहले ही उनके पिता बाबू राम मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए थे। इलाज के प्रयास किए गए, लेकिन अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। ऐसे में परिवार की सारी जिम्मेदारी उनकी माता राम श्री पर आ गई। उन्होंने अकेले ही पाँच बच्चों का पालन-पोषण किया। प्रतिमा की दो बहनें और दो भाई हैं।

जब प्रतिमा मात्र 10 वर्ष की थीं, तभी उनकी मां की आकस्मिक छत से गिरकर मृत्यु हो गई। यह हादसा पूरे परिवार के लिए बेहद दुखद था, लेकिन प्रतिमा के लिए तो जैसे सारी दुनिया ही बदल गई। उनके जीवन में स्नेह और सुरक्षा का आखिरी स्तंभ भी ढह चुका था।

परिवार में उपेक्षा और अकेलापन

मां की मृत्यु के बाद दोनों भाइयों ने घर की जिम्मेदारी तो उठाई, लेकिन भाइयों की शादी के बाद जब परिवार में नई भाभियाँ आईं, तो प्रतिमा के प्रति उनका व्यवहार असंवेदनशील और कठोर हो गया। यह समय प्रतिमा के लिए मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद कठिन था। किसी भी प्रकार का समर्थन न मिलने के कारण वह अंदर से पूरी तरह टूट चुकी थीं।

शिक्षा की लौ और विनोबा सेवा आश्रम का साथ

इन परिस्थितियों में भी प्रतिमा ने हार नहीं मानी। उनका नामांकन विनोबा सेवा आश्रम में करवाया गया, जहाँ उन्होंने 12वीं तक की पढ़ाई पूरी की। लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें परिवार से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं मिली। कई बार आग्रह करने के बाद, उनके भाई ने उनका एडमिशन गांधी फैज़-ए-आज़म पी.जी. कॉलेज में कराया, लेकिन फीस समय पर जमा नहीं हो पाती थी।

पढ़ाई का बोझ और आर्थिक संकट देखकर प्रतिमा ने खुद ही नौकरी करने का निर्णय लिया, ताकि अपनी शिक्षा को जारी रख सकें।

सर्वोदय आश्रम से नया मोड़

इसी दौरान उनके ताऊ जी की बेटी रेखा ने उन्हें सर्वोदय आश्रम लर्निंग सेंटर के बारे में बताया। कुछ दिनों तक रेखा ने उन्हें अपने केंद्र में बच्चों को पढ़ाने का अवसर दिया। बच्चों को पढ़ाने से प्रतिमा को आत्मिक शांति और आत्मविश्वास मिला। उन्होंने रेखा से आग्रह किया कि उन्हें भी स्थायी रूप से पढ़ाने का अवसर दिलवाया जाए।

रेखा उन्हें सर्वोदय आश्रम कार्यालय, शाहजहांपुर लेकर गईं, जहाँ प्रतिमा का इंटरव्यू लिया गया। उनके व्यवहार, समर्पण और जिज्ञासा को देखकर उन्हें अध्यापक के पद पर नियुक्त किया गया।

नई शुरुआत और आत्मनिर्भरता

जब उन्हें नौकरी मिली, तो प्रतिमा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। संयोग से रेखा जी ने उसी केंद्र से इस्तीफा दे दिया और प्रतिमा को वहाँ का पूर्ण ज़िम्मेदार बना दिया गया। प्रतिमा ने पूरी लगन से बच्चों को पढ़ाना शुरू किया और जो वेतन मिला, उससे न केवल घर की छोटी-मोटी ज़रूरतें पूरी कीं, बल्कि अपनी शिक्षा को भी जारी रखा।

आज प्रतिमा ने B.Ed की परीक्षा सफलता पूर्वक उत्तीर्ण कर ली है और सर्वोदय आश्रम केंद्र में नियमित रूप से बच्चों को पढ़ा रही हैं। वे न केवल शिक्षिका हैं, बल्कि समाज में बालिकाओं के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण बन चुकी हैं।

निष्कर्ष

प्रतिमा की कहानी इस बात का प्रमाण है कि कठिनाइयाँ चाहे कितनी भी क्यों न हों, अगर मन में दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास हो, तो कोई भी सपना अधूरा नहीं रह सकता। प्रतिमा ने विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद की किरण नहीं बुझने दी। आज वे आत्मनिर्भर, शिक्षित और आत्मसम्मान से भरी एक सशक्त महिला हैं। उनकी सफलता न केवल व्यक्तिगत उपलब्धि है, बल्कि उनके जैसे कई युवाओं के लिए प्रेरणा की मिसाल भी है।

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